Ishq Likhun Ya Inqulaab – इश्क़ लिखूँ या इन्‍कलाब

इश्क़ लिखूँ या इन्कलाब

झाँसी लिखूँ, मंगल लिखूँ और सुभाष लिखूँ,
या शाहजहां और मुमताज लिखूँ,
लिखूँ राँझा और हीर या फिर
भगत, उद्यम, आज़ाद लिखूँ।
लिखूँ गोरी के कंगन-काजल,
या फिर जालिया वाला बाग लिखूँ।
मेरी कलम मुझसे पूछ रही:
इश्क लिखूँ या इन्क़लाब लिखूँ।
मैं उलझ जाऊँ जिस्मों में,
वादों और कसमों में
क्या वो भोग विलास लिखूँ।
या जो क्षण में रण करते थे,
शीश तलवारों पे धर लड़ते थे।
वो तात्या और राणा प्रताप लिखूँ
मेरी कलम मुझसे पूछ रही:
इश्क लिखूँ या इन्क़लाब लिखूँ।
माँ भारती के चरण-धूल, धूल भूलकर,
अमर ज्योति में चढ़े फूल, फूल भूलकर
जो शीश गिरे शहीदों के
वो शीश, शीश भूल कर
जो कशिश है वतन की ओर
वो कशिश, कशिश भूलकर
माटी ने जो दी परवरिश
वो परवरिश, परवरिश भूलकर
जिसने बक्शी अन्न जल जीवन
उसकी बक्शीश भूलकर
क्या लिखूँ बस
बिंदिया कुमकुम काजल
या फिर अखंड भारत का इतिहास लिखूं
मेरी कलम मुझसे पूछ रही
इश्क लिखूँ या इन्क़लाब लिखूँ।
ये यौवन बनता बिखरता स्वपन
क्या इस यौवन का स्वपन लिखूं,
या सदियों से सभ्यताओं को देता शरण,
ये वतन, इस वतन का वंदन लिखूं।
लिखूँ किसी प्रेमी युगल की कहानी
या फिर शहीदों की कुर्बानी लिखूँ,
इश्क़ की जलती समा या
क्रांति की धधकती आग लिखूँ।
लिखूँ किसी आयुष्मती का सुहाग,
या फिर शहीदों के
सुने आँगन का विलाप लिखूँ।
मेरी कलम मुझसे पूछ रही
इश्क लिखूँ या इंकलाब लिखूँ।
वतन के लिए 
इतनी तड़प देख कर
जिस तरह धड़क रही है
इसकी धड़क देख कर
कहा मैंने:
लिखो मेरी कलम,
अब ये आगाज़ लिखो।
मातृभूमि के चरण-कमल,
और शीश का ताज लिखो।
सर चढ़े जो माँ भारती के कदमों में
उन कटे सरों की आवाज लिखो।
भगत-सुखदेव-राजगुरु के सपने
तो आज़ाद और सुभाष के ख्वाब लिखो।
अब मेरी कलम भी हुंकार रही,
रंग के बसंती स्याही अंदर,
अब ये भी दहाड़ रही:
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ बस इन्कलाब लिखूँ।
जो जुल्म हुए भारतवासी पर
जो तन सजे हैं झाँकी पर
जो शीश चढ़े हैं फांसी पर
जो धड़ गिरे झाँसी पर
उनकी करणी बेहिसाब लिखूँ।
इन्क़लाब पर उठे हर
सवालों के जवाब लिखूँ।
जले जो रौशन करने को वतन
कविता में वो चिराग लिखूँ
मेरी कलाम मुझसे कह रही:
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ, बस इन्कलाब लिखूँ।
जिनके तेज से क्रंदन करते दुश्मन,
आखिर में शहीद देह भी
कर दिया भय उत्पन्न।
शहादत भी आई होगी लेने
पर करके शत-शत नमन।
उस आज़ाद-सा आफताब लिखूँ।
नाम उनके आज ये पैगाम लिखूँ।
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ, बस इन्कलाब लिखूँ।
तुम मुझे खून दो, 
मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।
बन जाये वर्मा में सेना,
फिरंगी के हिस्से बर्बादी दूँगा।
अंग्रेजों के नाक में दम,
कर दूँगा यहाँ उनका रहना सितम।
सुभाष चन्द्र बोस के रक्त में
उमड़ते हुए सैलाब लिखूँ।
देश के प्रति ऐसे जज़्बात की
मैं महाकाव्य लिखूँ।
मेरी कलाम मुझसे कह रही:
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ, बस इन्कलाब लिखूँ।
महज बारह की उम्र में
मिलों पैदल चलकर
ले आए थे जालियावाला मिट्टी
सेनानियों की मिसाल बनकर
भरी सदन में बिस्फोट कर
आज़ादी का ज्वाला जलाया था,
इन्क़लाब के नारे से
क्रांति का परचम लहराया था।
भगत सिंह की क्रांति की
वो पुरानी किताब लिखूँ
जरूरत पड़ी है आज,
फिरसे वही इन्क़लाब लिखूँ।
मेरी कलाम मुझसे कह रही:
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ, बस इन्कलाब लिखूँ।
ना इश्क़ लिखूँ, ना शबाब लिखूँ
अब लिखूँ, बस इन्कलाब लिखूँ।
: - प्रेम कुमार

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